रक्त प्रदर ( रक्त स्राव ) होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय

कल्याण आयुर्वेद- रक्त प्रदर को प्रदर, बहुलार्तव, दुष्टार्तव, रक्त योनि, लोहितक्षरा, असृग्धर आदि नामों से जाना जाता है.
रक्त प्रदर ( रक्त स्राव ) होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय
रोग का परिचय- मासिक धर्म या उसके अतिरिक्त समय में योनि मार्ग से अत्यधिक मात्रा में अधिक समय तक रक्त स्राव या रजःस्राव का होना असृग्धर अथवा रक्त प्रदर कहलाता है.
आचार्य सुश्रुत ने भी कहा है कि ऋतुकाल में यदि योनि से रक्त अधिक मात्रा में निकले अथवा ऋतुकाल के अतिरिक्त काल में भी रक्तस्राव पाया जाए तो उसे रक्त प्रदर कहते हैं. इसमें आर्तव रक्त के ही लक्षण होते हैं.
इसमें योनि से अधिक मात्रा में तथा अधिक दिनों तक रक्त स्राव होता रहता है. सामान्य आर्तव 3 से 5 दिन तक रहता है. लेकिन इसमें 7 से 8 दिन तक रह सकता है. एक आर्तव के प्रारंभ से लेकर दूसरे के प्रारंभ तक उतना ही अंतर रहता है जितना कि सामान्य आर्तव में, अर्थात आर्तव में कोई अंतर नहीं होता. इस रोग में आर्तव चक्र ठीक रहता है. लेकिन उसका समय तथा आर्तव की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है जो नियमित समय से बहुत दिनों तक आता रहता है.
संप्राप्ति- जो महिला अम्ल, लवण, कटु, रसयुक्त एवं असलियत आयुक्त आहार, विचार रहित होकर करती है. उनकी रक्त धातु की मात्रा स्वाभाविक से अधिक पैदा होकर शरीर में वायु व पित्त कुपित करती है. यह दोनों कुपित होकर उसी बढ़े हुए रक्त को गर्भाशय की बाहरी नलिका रजःस्राव धमनी में जाकर रक्त प्रदर की उत्पत्ति करते हैं.
रक्त प्रदर ( रक्त स्राव ) होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय
रोग होने के कारण-
भोजन- गुरु, विदाही, अम्ल तथा सिरके आदि के अति सेवन से अत्यार्ताव की उत्पत्ति होती है.
अति मैथुन-
अति मैथुन के कारण महिलाओं की जन इंद्रियों की ओर रक्त प्रवाह अधिक हो जाता है जो आर्तवस्राव भी अधिक कर आता है. नवविवाहित महिलाओं में अधिक मैथुन करने से यह अवस्था उत्पन्न होती है.
गर्भपात-
प्रसव के उपरांत साधारणतया अपरा गर्भ के सब अंग बाहर निकल जाते हैं. जिससे गर्भाशय अपनी पूर्व स्थिति में आ जाता है. लेकिन जब अपरा या कुछ भाग अंदर रह जाता है तो वह अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आता, जिससे वह मृदु एवं स्थूल हो जाता है. रक्त आदि के कारण उससे रक्त स्राव हुआ करता है. यह स्थिति प्रायः गर्भपात के कारण होती है.
यानाध्व-
घोड़ा, ऊंट, साइकिल आदि की अधिक सवारी करना, हार्वर्ड फ्रेंड्स ने नृत्य, जिमनास्टिक, साइकिल की सवारी, शिकार करना आदि इसका कारण बताया है.
शोक-
मद, काम, क्रोध, चिंता से मानसिक उत्तेजनाए होती है. इससे शरीर के अन्तःस्रावों में वृद्धि होकर रक्त भार अस्थाई रूप से बढ़ जाता है. इसके परिणाम स्वरूप गर्भाशय में रक्ताधिक्य होकर अत्यार्ताव की उत्पत्ति होती है.
आधुनिक ग्रंथकारों ने असृग्धर को रोग ना मानकर अत्यार्तव शब्द से इस लक्षण का वर्णन किया है और कारणों को अनेक भागों में बांटा है. हेनरी जिलेट ने इसके संपूर्ण कारणों को चार बड़े भागों में विभक्त किया है.
1 .प्रजनन संस्थान गत कारण-
कोई भी कारण जो गर्भाशय में रहकर वहां रक्ताधिक्य उत्पन्न करे. वह अत्यार्ताव उत्पन्न कर सकता है. जैसे गर्भाशय कलाशोथ, गर्भाशय तथा बीज ग्रंथि के अर्बुद, अपरा के अवशेष तथा गर्भाशय का हिनसंवरन, गर्भाशय का जीर्ण शोध एवं पालीपस, गर्भाशय का रिट्रोवर्शन, गर्भाशय का संकोचवर्तन तथा डिंब वाहिनी, डिंब कोषशोथ.
2 .रक्त व संस्थागत कारण-
रक्तभार की वृद्धि करने वाले सब कारण अत्यार्ताव पैदा करते हैं. जैसे वृक तथा हृदय रोग, यकृदल्युदर तथा स्वशनि शोथ, ह्रदय कपाट के रोग, उच्च रक्तचाप, धमनी दाधर्य तथा फुसफुस का एम्फीसीमा.
3 .वात नाड़ी संस्थान गत कारण-
अत्यधिक मैथुन, अतिउष्ण में स्नान तथा भावा वेश से प्रत्यावर्तन क्रिया के द्वारा अत्यार्ताव की उत्पत्ति होती है.
4 .अंतः स्रावी ग्रंथि गत कारण-
वीज ग्रंथि तथा थायराइड ग्रंथि का अत्यधिक अन्तःस्राव अत्यार्ताव को पैदा करता है.
5 .संक्रामक रोग-
आंतरिक ज्वर ( टाइफाइड ) फ्लू, स्कारलेट बुखार, मलेरिया आदि रोगों के कारण भी अत्यार्ताव हो जाता है.
6 .अन्य कारण-
नाचना, शिकार खेलना, देर तक साइकिल चलाना, अत्यधिक भय तथा उद्वेग एवं ताप का सहसा परिवर्तन भी अत्यार्ताव की उत्पत्ति का कारण हो सकता है. इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमुख कारण योनि गुहा की विक्षति है. अतः अत्यार्ताव के रोगी में श्रोणिगुहा की पूरी परीक्षा करनी चाहिए. अन्य कारणों में रक्त की विकृति एवं अधिक श्रम भी है. जब कोई कारण स्पष्ट रूप से ना मिले तो हार्मोन का विक्षोभ समझा जाता है. फिर भी श्रोणिगुहा के ऊतकों के अत्यंत संक्रमण का सदैव ध्यान रखना चाहिए.
रक्त प्रदर के लक्षण-
इस रोग में महिला को अधिक मात्रा में कई-कई दिनों तक मासिक स्राव समय- असमय निकलता रहता है. निकलने वाला खून पतला, थक्का और अधिक मात्रा में होता है. अधिक रजः स्राव के साथ रोगिणी के कटी प्रदेश में पीड़ा, उदर के निम्न प्रदेश में शूल, हाथ पैर के तलवे में दाह, जलन, बेचैनी एवं दुर्बलता आदि लक्षण होते हैं.
रक्त प्रदर आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय-
* रोगिनी को पूर्ण विश्राम देना चाहिए.
* रोग का मूल कारण जिससे रोग पैदा हुआ हो उसे पहले दूर करना चाहिए.
* रोग के लक्षणों के अनुसार चिकित्सा करनी चाहिए.
* रोगी सैया का पायदाना उठा करके रखना चाहिए.
* अधो रक्त पित्त की चिकित्सा आवश्यक है. वात तथा पित्त का शमन करना चाहिए. पर बस्ती विरेचन तथा गर्भाशय की आकुंचन जनों के उत्तेजक उपचारों को बंद करना चाहिए.
* मुख द्वारा प्रचुर मात्रा में द्राक्षा, शक्कर आदि का घोल देना चाहिए.
* रक्त की कमी को दूर करने के लिए लौह के योग देने चाहिए.
* जब बहुत अधिक रक्तस्राव हो रहा हो तो रोगिनी को आराम से लिटाकर उसके नाभि तथा पेडू पर बर्फ की थैली रखें तथा ठंडे पानी में फिटकरी घोलकर उसमें कपड़ा गिला करके पेडू पर रखें.
* रोगिनी को मलावरोध नहीं होने देना चाहिए.
* रक्त प्रदर से पीड़ित रोगिणी को गाय का दही, काला नमक, जीरा, मुलेठी और नीलकमल का चूर्ण बनाकर मधु के साथ सेवन कराना चाहिए.
* कुशा की जड़ को तन्दुलोदक के साथ पीसकर 3 दिन तक पीने से रक्त प्रदर खत्म होता है.
* बल्ला की जड़ को गाय के दूध के साथ पीसकर अथवा कुशा तथा बला की जड़ों को संयुक्त कर तंदुलोदक के साथ पीसकर छानकर शहद मिश्री मिलाकर पिलाए.
* आयुर्वेद में चंद्रकला रस का प्रयोग अत्यार्ताव को नाश करने के लिए किया जाता है. यह महिलाओं के घोर रक्त स्राव को दूर करता है.
* काला नमक, सफेद जीरा 40- 40 ग्राम, मुलेठी 20 ग्राम, कमलगट्टा 20 ग्राम, शहद 60 ग्राम सभी औषधियों को कूट पीसकर चूर्ण बनाकर शहद में मिलाकर रख लें. अब 1 ग्राम का चौथा हिस्सा सुबह- शाम कुछ दिनों तक निरंतर देते रहें इससे काफी लाभ होगा.
* अशोक की छाल 24 ग्राम आधा किलो जल तथा 1 किलो दूध में डालकर पकाएं जब आधा किलो शेष रह जाए तब उतार लें और छानकर उचित मात्रा में पिलाए. साथ ही त्रिफला का काढ़ा अथवा पानी में जरा सा पोटास ऑफ परमैग्नेट मिलाकर पिचकारी की सहायता से योनि को धोना चाहिए.
* रक्त प्रदर में सुबह- शाम प्रदरादि लोह और भोजन के बाद अशोकारिष्ट पीना लाभदायक होता है अथवा बराबर मात्रा में राल और लाख का चूर्ण 1/2 ग्राम सुबह-शाम जल के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर में लाभ होता है.
* प्रवाल भस्म, वंशलोचन, सफेद राल- इनका संभाग मिश्रण आवश्यकतानुसार सेवन कराने से रक्त प्रदर में अच्छा लाभ होता है.
रक्त प्रदर ( रक्त स्राव ) होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय
नोट- यह पोस्ट शैक्षणिक उद्देश्य से लिखा गया है. किसी भी प्रयोग से पहले योग्य डॉक्टर की सलाह जरूर लें.
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स्रोत- स्त्री रोग चिकित्सा.

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