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मानसिक स्वच्छता के लाभ क्या है? |
आयुर्वेद के मतानुसार सर्व रोगों की जड़ प्रज्ञापराध होता है। वह प्रज्ञापराध मानसिक अस्वच्छता के कारण ही होता है। मन स्वच्छ रहे, तो बुद्धि में विकृति होगी ही नहीं।
मानसिक स्वच्छता का अर्थ है, हमारा मन और आत्मा दोष-रहित हो; स्वच्छ, सन्तोषी, श्रमशील, सचेत और निर्विकार हो। अर्थात् काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या आदि विकारों से मन विकृत न हो। ऐसा होने से मनुष्य स्वाभाविक ही उच्च चरित्र का धनी, आदर्श सफलता वाला, प्रतिष्ठित, सम्पन्न, स्वस्थ और जीवन की हर दिशा में यशस्वी होता है।
मानसिक स्वच्छता के साधन रूप में प्राचीन भारतीय परम्पराएँ ही अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होती हैं। संध्यावन्दन, अग्निहोत्र, ध्यान, जप, साधना और स्वाध्याय आदि क्रियाओं से मानसिक स्वच्छता होती है।सन्ध्यावन्दन से मनुष्य का मानसिक विश्वास जाग्रत होता है और उसमें धैर्य एवं संयम की भावना का उदय होता है। अग्निहोत्र से बाहर के वातावरण की शुद्धि तो होती ही है, भीतर एक आत्मिक तेज प्रस्फुटित होता है। ध्यान और जप से मन में एकाग्रता बढ़ती है तथा मन शक्तिशाली एवं सहिष्णु बनता है। आधुनिक लोग पूर्ण एवं निश्चित सफलता के हेतु कान्सेन्ट्रेशन (Concentration) नाम के जिस अभ्यास को उपयोगी मानते हैं वह भारतीय विधि से ध्यान करने में सहज सुलभ होती है। स्वाध्याय से अज्ञान दूर होता है और मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक होता है। इसी प्रकार दान के अभ्यास से मनुष्य में दूसरे के प्रति क्रियात्मक रूप से सहानुभूति, संवेदना एवं सेवाभाव की स्थापना होती है और संग्रहीत द्रव्य की शुद्धि एवं सदुपयोग होता है। इन सबसे मनुष्य में ' आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना बलवती होकर,
अन्यों को भी अपने समान ही समझने की सुबुद्धि आती है और वह सहजगति से सदाचारानुगामी बनता है। आधुनिक काल में साधन-बहुलता की आकांक्षा और निःसीम काम-इच्छाओं की दुष्प्रवृत्तिवश जो नैतिकहीनता, विभ्रम एवं उन्माद आदि विकार बढ़ रहे हैं, उनके निराकरण हेतु भी मानसिक स्वच्छता के उपरोक्त उपाय सर्वथा उपयोगी हो सकते हैं।
मानसिक स्वच्छता का अर्थ है, हमारा मन और आत्मा दोष-रहित हो; स्वच्छ, सन्तोषी, श्रमशील, सचेत और निर्विकार हो। अर्थात् काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या आदि विकारों से मन विकृत न हो। ऐसा होने से मनुष्य स्वाभाविक ही उच्च चरित्र का धनी, आदर्श सफलता वाला, प्रतिष्ठित, सम्पन्न, स्वस्थ और जीवन की हर दिशा में यशस्वी होता है।
मानसिक स्वच्छता के साधन रूप में प्राचीन भारतीय परम्पराएँ ही अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होती हैं। संध्यावन्दन, अग्निहोत्र, ध्यान, जप, साधना और स्वाध्याय आदि क्रियाओं से मानसिक स्वच्छता होती है।सन्ध्यावन्दन से मनुष्य का मानसिक विश्वास जाग्रत होता है और उसमें धैर्य एवं संयम की भावना का उदय होता है। अग्निहोत्र से बाहर के वातावरण की शुद्धि तो होती ही है, भीतर एक आत्मिक तेज प्रस्फुटित होता है। ध्यान और जप से मन में एकाग्रता बढ़ती है तथा मन शक्तिशाली एवं सहिष्णु बनता है। आधुनिक लोग पूर्ण एवं निश्चित सफलता के हेतु कान्सेन्ट्रेशन (Concentration) नाम के जिस अभ्यास को उपयोगी मानते हैं वह भारतीय विधि से ध्यान करने में सहज सुलभ होती है। स्वाध्याय से अज्ञान दूर होता है और मनुष्य अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक होता है। इसी प्रकार दान के अभ्यास से मनुष्य में दूसरे के प्रति क्रियात्मक रूप से सहानुभूति, संवेदना एवं सेवाभाव की स्थापना होती है और संग्रहीत द्रव्य की शुद्धि एवं सदुपयोग होता है। इन सबसे मनुष्य में ' आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना बलवती होकर,
अन्यों को भी अपने समान ही समझने की सुबुद्धि आती है और वह सहजगति से सदाचारानुगामी बनता है। आधुनिक काल में साधन-बहुलता की आकांक्षा और निःसीम काम-इच्छाओं की दुष्प्रवृत्तिवश जो नैतिकहीनता, विभ्रम एवं उन्माद आदि विकार बढ़ रहे हैं, उनके निराकरण हेतु भी मानसिक स्वच्छता के उपरोक्त उपाय सर्वथा उपयोगी हो सकते हैं।
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